Saturday 28 May 2011

खाण्डल विप्र (खण्डेलवाल ब्राह्मण) गोत्र -


१ माठोलिया
मठ्मालयमासाध जाप जगदीश्वम ।
अतो माठालयो भूमौ ब्राह्नणः ख्यातिमागतः ॥१॥
मठ नमक स्थान में बैठकर जो जगदीश्वर का जप किया करता था, वह ब्राह्नण पृथ्वी पर मठालय (माठोलिया) नाम से विख्यात हुआ ॥१॥
मठालय का माठोलिया रूप समय पाकर बना हुआ है। लोक में अन्य परिवर्तनों के समान शाब्दिक परिवर्तन भी होते रह्ते है, उसी अनुसार आरंभ का मठालय समय पाकर माठालया और फिर माठोलिया रुप में परिवर्तित हो गया।
२. बढाढरा
वंटकोलं समाहत्य चाहारमनुकल्पयॅत ।
ततस्तस्य समाह्वानं वटाहारमिति क्षितौ ॥२॥
बडवंटे (वरगद के फल) इकट्टे कर जो ॠषि भोजन करता था, उसे लोग वटाहार ( बढाढरा ) कहने लग गये ॥२॥
उच्छवृत्ति परायण ऋषियो में कन्दमूल खाने का जो प्रचलन था, उसके अनुसार ॠषि स्वेच्छानुसार कन्दमूल का चुनाव करते थे।
३. श्रोत्रिय (सोती)
विप्रेभ्योपि ददौ धीमान वेदान साड्गाननुक्रमात ।
पाठयित्वा ततो विप्रः श्रोत्रियो विश्रुति गतः ॥३॥
जो बुद्धिमान विप्र छहो अंगो सहित अध्यापन द्वारा ब्रह्मणो को वेद ज्ञान प्रदान करता था वह श्रोत्रिय (सोती) के नाम से प्रसिद्ध हुआ ॥३॥
४. सामरा
देवैः सह सदा यस्य व्यवहारः प्रवर्तते ।
सामरः स तु विख्यातः स्वर्गे वा क्षितिमंडले ॥४॥
जिस विप्र का लेनदेन देवताओ के साथ रहा करता था, वह स्वर्ग और पॄथ्वी मण्डल में सामर (सामरा) नाम से विख्यात हुआ ॥४॥
५. जोशी
ज्योतिर्विदाम्बरो धीरो यज्ञवैलां ददावथ ।
ज्योतिपीति समाख्यातो देवविप्रसभासु यः ॥५॥
ज्योतिर्विदो में जो विप्र यज्ञ वेला का मुहूर्त देने वाला था, वह देव विप्र सभाओं में ज्योतिषी (जोशी) के नाम से विख्यात हुआ ॥२॥
एक दीर्घकाल से आर्य हिन्दू समाज में ज्योतिषियों के लिये जोशी शब्द का व्यवहार प्रचलित है। इसी आधार पर ज्योतिविंद अथवा ज्योतिष मर्मज्ञ का गोत (सासन या अवटंक) जोशी नाम से प्रसिद्ध हुआ ।
६. रणवा
रणमुद्व्हते योऽसौ यज्ञध्नैदैत्यपुंगवैः ।
यज्ञसंरक्षणयैव रणोद्वाहीं प्रथां गतः ॥६॥
जो यज्ञ नाशक दैत्य पुंगर्वो से युध्द कर यज्ञ की रक्षा करता था, वह ऋषि रणोद्वाही (रणवाद अथवा रणवा) नाम से प्रसिद्ध हुआ ॥६॥
ऋषि समाज में आत्मरक्षण के लिये शस्त्र ग्रहण करना उपयुक्त समझा जाता था। वह श्लोक इसकी पुष्टि करता है।
७. बीलवाल
सुपक्वानि च विल्वान यज्ञार्थ संहतानि च ।
विल्ववानथ स ख्यातो ब्राह्णाणेषु द्विजोत्तमः ॥७॥
जो द्विजोत्तम पके हुए विल्व फल इकट्ठे कर यज्ञ के लिये लाया करता था, वह ब्रह्मणो में विल्वान (बीलवाल) नाम से विख्यात हुआ ॥७॥
८. बील
विल्वमालाच शिरसि गले च भुजयोरपि ।
विल्वमुले स्थितो योऽसौ तस्माद्विल्व इति श्रुतः ॥८॥
जो सिर, गले और भुजाओं में विल्व की मालायें धारण करता तथा जो विल्व के नीचे बैठा करता था, वह इसी कारण विल्व (बील) नाम से प्रसिद्ध हुआ ॥८॥
९. कुँजवाड
लतागृह समाश्रित्य जजाप परमं जपः ।
कुज्वाडिति विख्यातो ब्राम्हणो ब्रम्हवित्तमः ॥९॥
लतागृह में बैठकर जिसने उत्कृष्ट जप किया, वह ब्रह्म्वेत्ता ब्रह्म्ण कुन्जवाद (कुन्जवाड) नाम से विख्यात हुआ ॥९॥
ऋषि लोग प्रकृति प्रेमी होते थे । उनका बौद्धिक विकास प्रकृति के सानिध्य से ही होता था । वे लोग लता कुँजों में ही जीवन बिताते थे ।
१०. सेवदा
ररक्ष सेवधिं द्रव्यमृषीणां परमाज्ञया ।
तस्मात्स सेवधिर्नामा विख्यातो भूवि ब्राह्मणः ॥१०॥
जो ऋषियों की आज्ञानुसार यज्ञीय धन की रक्षा किया करता था, वह ब्राह्म्ण पृथ्वी पर सेवधि (सेवदा) नाम से प्रसिद्ध हुआ ॥१०॥
११. चोटिया
शिखा वृद्धतरा यस्य सर्वांगे लुलिता परा ।
तस्माच्चौल इति ख्यातो भूसुरो भुविमंडले ॥११॥
बडी भारी चोटी जिसके सारे शरीर पर पडी रहा करती थी, वह ब्राह्म्ण पृथ्वी मंडल में चौल (चोटिया) नाम से प्रसिद्ध हुआ ॥११॥
१२. मणडगिरा
मणडमागिरते नित्यं दन्तहीनो द्विजोत्तमः ।
ततो मणडगिलः ख्यातः सर्वदा भुवि मंण्ड्ले ॥१२॥
जो द्विज श्रेष्ठ दन्त हीन होने के कारण प्रतिदिन चावलो का मांड पिया करता था, इसी कारण वह पृथ्वी मण्डल में मण्डगिल (मंडगिरा) नाम से विख्यात हुआ ॥१२॥
१३. सुन्दरिया
सुन्दरस्तुन्दिलो योऽसौ त्रिवल्या परिशोभते ।
तेनैव सुन्दरो भुमौ विख्यातो विप्रसत्तमः ॥१३॥
जिस श्रेष्ठ ब्राह्म्ण की तोंद त्रिवली से सुशोभित थी वह उसी कारण पृथ्वी पर सुन्दर (सुन्दरिया) नाम से प्रसिद्ध हुआ ॥१३॥
१४. झकनाडा
झषनर्तनमालोक्य परमानन्दमात्मनः ।
यो मेने मनसा धीमान झषनाट्य इति स्मृतः ॥१४॥
जो बुद्धिमान ब्राह्म्ण मछलियों का नृत्य देखकर अपने मन में आनन्द का अनुभव करता था, वह झषनाटय (झखनाडा) नाम से स्मरण किया गया ॥१४॥
१५. रूंथला
चरूस्थाली करे कृत्वा प्रजपन्मंत्रमुत्त्मम ।
अजोहवोत्तदा वन्दौ चरूस्थालीति विश्रतः ॥१५॥
जो चरूस्थाली को हाथ में लेकर मंत्र जपता हुआ अग्नि में आहुतियां दिया करता था वह चरुस्थाली (रुंथला) नाम से प्रसिद्ध हुआ ॥१५॥
१६. गोधला
गोधूली समये नित्यं यो भुनक्ति महामतिः !
स तद्व्रतप्रभावेण गोधूलिख्यातिमागतः ॥१६॥
जो महामति गोधूलि वेला में भोजन किया करता था, वह उस ब्रत के प्रभाव से गोधूली (गोधला) नाम से प्रसिद्ध हुआ ।
१७. गोरसिया
गोतक्र यः पिवेन्नित्यं मन्यदन्नं न भज्ञयेत ।
गोरस इति ख्यातो विप्रः पुण्येन कर्मण ॥१७॥
जो नित्य केवल गोतक (गाय की छाछ) पिया करता था और दूसरा अन्न नहीं खाता था, वह विप्र पुण्य कर्म से गोरस (गोरसिया) नाम से विख्यात हुआ ॥१७॥
१८. झुन्झुनाद
यज्ञस्यान्ते च यो नित्यं सामवेदं स्वरान्वितम ।
धुनोति ब्राह्म्णः श्रीमान झुन्झुनाद इतीरितः ॥१८॥
यज्ञ समाप्ति पर जो सस्वर सामवेद का गान करता था, वह झुन्झुनाद (झुन्झुनादा) नाम से पुकारा जाने लागा ॥१८॥
१९. भूमरा
भूगर्तान्यत्र कूत्रापि द्य्ष्ट्वा भरति यः सदा ।भूभरः स तु विख्यातः सर्वत्र सुखदो द्विजः ॥
जहा कहीं पृथ्वी में गड्टों को देखकर जो सदा उनको पात देता था, सर्वत्र सुख देने वाला वह द्विज भूभर ( भूभरा ) नाम से बिख्यात हुआ ॥१९॥
२०. वटोटिया
वटमूलमुपाश्रित्य नैत्यकं कुरूते तु यः ।
वटोधा धै समाख्यातो भू सुरेसु निरन्तरम् ॥२०॥
जो वरगद के नीचे बैठकर नित्य कर्म करता था, बह निरन्तर भूसुर वर्ग में वटोधा ( वटोटिया अथवा वट ओटिया ) नाम से विख्यात हुआ ॥२०॥
२१. काछ्वाल
कक्षमाश्रित्य वैधास्तु जुहुयामंत्रसंयुतम ।
क्ज्ञावानिति सर्वत्र विख्यातः ऋषिपुड्गवः ॥२१॥
जो वेदी के कोने में बैठकर मंत्रोच्चारण पुर्वक आहुति दिया करता था, वह ऋषि श्रेष्ठ सर्वत्र कज्ञावान (काछवाल) नाम से विख्यात हुआ ॥२१॥
२२. शिवोद्वाही (सोडवा)
शिवमुद्वहते कण्ठे नित्यं भक्त्या मुनिमर्हान ।
शिवोद्वाहीति लोकोस्मिन तेन ख्यातो विदाम्बरः ॥२२॥
जो महामुनि भक्ति पुर्वक नित्य कण्ठ में शिवजी को धारण करता था, वह शिवोद्वाही (सोडवा) नाम से लोक में प्रसिद्ध हुआ ॥२२॥
२३. भाटीवाडा
भट्टस्य रूपमास्थाय युध्यते यो निरन्त्म ।
तेनैव भुतले ख्यातो भाटीवानिति पंडितः ॥२३॥
योद्धा का रूप धारण कर जो निरन्तर युद्ध किया करता था वह पण्डित भाटीवान (भाटीवाडा) नाम से पृथ्वी तल पर विख्यात हुआ ॥२३॥
२४. गोवला
गाः पालयति यः स्नेहान्नियं धर्मपरायणः ।
तासामेत्र बलो यस्य गोबलः कथितो द्विजैः ॥२४॥
जो प्रेम पूर्वक धर्मपरायण होकर नित्य गौओं का पालन करता था और जिसके गोओं का बल ही प्रधान था वह द्विजों द्वारा गोवल (गोवला) नाम से पुकारा गया ।
२५. वशीवाल
वशीकृत्य जनान् सर्वान् वर्तते क्षितिमण्डले ।
तत्प्रभावात् समाख्यातो वशीवानिति भूतले ॥२५॥
जो सब जनों को वश में कर निवास करता था, वह उसी प्रभाव से पृथ्वी पर वशीवान् (वशीवाल) नाम से विख्यात हुआ ॥२५॥
२६. मंगलहारा
मनसा वचसा नित्यं सर्वेषामभिवाच्छति ।
मंगलाहरति योऽसौ तस्मान्मंगलहारकः ॥२६॥
मन और वाणि से जो सब का भला चाहता था और सब का मंगल करता था, वह मंगलाहर (मंगलहारा) नाम से विख्यात हुआ ।
२७. बोचीवाल
जो क्रान्तकर्मा धर्मान्धर्मात्मकः कविः ।
तस्मादसौ च विख्यातो वोचीवानिति नामतः ॥२७॥
जो क्रान्तकर्मा धर्मात्मा ऋषि यज्ञशाला में धार्मिक उपदेश दिया करता था, यह इसी कारण वोचीवान् (वोचीवाल) नाम से विख्यात हुआ ॥२७॥
२८. धुगोलिया
दियो गोलमथालम्व्य वर्णितं व्योमविस्तरम् ।
तस्मादत्र समाख्यातो धूगोल इति विद्वरः ॥२८॥
खगोल का अवलम्बन कर जिसने खगोल का विस्तार पूर्वक वर्णन किया, इसी कारण वह ज्ञानियों में श्रेष्ठ धूगोल (दुगोलिया) नाम से विख्यात हुआ ॥२८॥
ऋषियों में नाना प्रकार की गवेषणायें करने का प्रचलन था । इस अवटंक के प्रवर्तक ऋषि ने भी खगोल का प्रामाणिक अनुसन्धान किया था ।
२९. कुन्जवाडा
गुन्जावितानमाछाध वटस्य परितो बुधः ।
तत्र चोवास यो धीरो गुन्जावाट इति श्रुतः ॥२९॥
जो विद्वान् गुन्जा के लता कुन्जों को बड पर चढाकर उनके नीचे निवास करता था, वह गुन्जावाट (गुन्जावडा) नाम से विख्यात हुआ ॥२९॥
३०. परवाल
प्रवालगौरवर्णश्र्च प्रवालैश्चैव मण्डितः ।
प्रवालमालयोपेतः प्रवालः स च कथ्यते ॥३०॥
जो ऋषि प्रवाल के समान गौर वर्ण था और जो प्रवालों से विभूषित और प्रवाल मालाधारी था, उसका नाम लोगों ने प्रवाल (परवाल) रक्खा ॥३०॥
३१. हूचरा
हू हू नामानमाहूय चानद्दज्ञवेश्मनि ।
चारयामास गान्धर्व तस्माद्धूचरको द्विजः ॥३१॥
यज्ञगृह में हूहू नामक गान्धर्व को बुलाकर जो गान्धर्व वेद का गायन करवाया करता था, वह द्विज (हूचरिया) नाम से प्रसिद्ध हुआ ॥३१॥
३२. नवहाल
जाम्बूद्रुममयं नूत्नं हलं जप्राह यो द्विजः ।
चकर्ष याज्ञिकीं भूमिं नवहाल प्रथां गतः ॥३२॥
जिसने जामुन का नया हल बना कर यज्ञ की भूमि को जोता, वह ब्राह्मण नवहाल नाम से प्रसिद्ध हुआ ॥३२॥
३३. वांठोलिया
यज्ञवाटमुपागम्य ह्यलिखन् स्थण्डिलं तु यः ।
जजाप परमं जापं तेन वांटोलिकः स्मृतः ॥३३॥
जो यज्ञ कि वेदी में रंग भरा कर गायत्री का जप किया करता था, वह उसको लोग वांठोलिक (वांठोलिया) कहते थे ॥३३॥
३४. पीपलवा
अश्वत्थमूलमासाद्द तस्वैव फलमत्ति यः ।
पिप्लवानिति ख्यातो भूमौ विप्रवरस्ततः ॥३४॥
पीपल के पेड की जडो में बैठकर जो पीपल के ही फल खाया करता था, वह विप्रवर पिप्पलवान (पीपलवा) नाम से प्रसिद्ध हुआ ॥३४॥
३५. मुछावला
श्मश्रुभिर्मुखमाच्छन्नो वर्तते यज्ञमण्डले ।
श्मश्रुलो हि समाख्यातः समुद्रान्तर्गतो भुवि ॥३५॥
दाढी मूछों से जिसका मुँह ढका रहता था, वह ऋषि द्विजों में श्मश्रुन (मुछ्वाल) नाम से विख्यात हुआ ॥३५॥
३६. तिवाडी
त्रिद्वार समागम्य जजाप जननी श्रुतिम् ।
त्रिवारीति च लोकेस्मिन् विख्यातिमधुना गताः ॥३६॥
जो तीन द्वार का मकान बनाकर उसमें गायत्री जपा करता था, वह इस लोक में (तिवाडी) के नाम से विख्यात हुआ ॥३६॥
३७. पराशला
पराशार्थ च यो लाति यस्मात्कस्माद्धनं बहुः ।
ततः पराशलो विप्रो विख्यातो भुवनत्रये ॥३७॥
जो ऋषि समिधा संचय के लिये इधर उधर से पर्याप्त धन लाया करता था, वह लोकत्रय में पराशल (पराशला) नाम से विख्यात हुआ ॥३७॥
३८. घाटवाल
घट्टमाश्रित्य कुण्डस्य भारत्याः मंत्रमुज्जपन् ।
घट्टवानिति विप्रेशः सर्वत्र विदितो ह्यभूत् ॥३८॥
जो यज्ञवेदी के किनारे बैठकर सरस्वती का जप किया करता था, वह सर्वत्र घट्टवान (घाटवाल) नाम से विख्यात हुआ ॥३८॥
३९. बणसिया
वने च निवसन्यो वै मन्त्र च द्वादशात्मकम् ।
जजाप परया भवत्या वानस्थो विश्रुतो भुविः ॥३९॥
जो वन में निवास करता हुआ द्वादश अक्षरात्मक "नमो भगवते वासुदेवाय" मंत्र का जाप किया करता था, उसको वनाश्रय (वणसिया अथवा वनसायिक) नाम से पुकारते थे ॥३९॥
४०. सिंहोटा
सिंहपृष्टसमारूह्य भगवत्याः प्रसादतः ।
सर्वत्राटति यो धीमाँस्ततः सिंहोटकः स्मृतः ॥४०॥
जो बुद्धिमान ऋषि भगवती के प्रसाद से सिंह पर चढकर सर्वत्र घूमा करता था, वह सिंहोटक (सिंहोटा अथवा सिंहोटिया) नाम से विख्यात हुआ ॥४०॥
४१. भुरटिया
भूर्भटं च तृणं सम्यगादाय शयनं रचेत्
भूर्भट इति विख्यातो बभूव धरणितले ॥४१॥
जो भरूंट घास को बिछाकर सोया करता था, वह धरणि तल पर भूर्भट (भरूटिया अथवा भुरटिया) नाम से विख्यात हुआ ॥४१॥
४२. टंकहारी
टंकं टंकं समादाय चाहारं कुरूते सदा ।
टंकहारीति विख्यातो लोके च परमर्षिभिः ॥४२॥
जो नित्य चार चार मासे के ग्रास लेकर भोजन किया करता था, वह महर्षियो द्वारा टंकहारी नाम से विख्यात हुआ ॥४२॥
४३. अजमेरिया
अजे ब्रह्मणि यो मेधां संयोज्य कर्म संचरेत ।
अजमेधा महीपृष्टे सर्वत्र विदितो ह्यभूत् ॥४३॥
जो ऋषि अजन्मा ब्रह्म में बुद्धि लगा कर कर्म किया करता था, वह सर्वत्र पृथ्वी तल पर अजमेधा (अजमेरिया) नाम से विख्यात हुआ ॥४३॥
४४. डीडवाणिया
डिंडिमं च पुरस्कृत्य विचचार महीतले ।
डिंडिमवानिति ख्यातो भूसुरो भूमिमण्डले ॥४४॥
जो डमरू लेकर पृथ्वी पर विचरण किया करता था, वह ब्राह्मण डिंडिमवान (डीडवाणिया अथवा डीडवाणा) नाम से पृथ्वी पर प्रसिद्ध हुआ ॥४४॥
४५. निटाणिया
निधनानि च भूयांसि समादाय धनेश्र्वरात् ।
विभज्य याचकेभ्योऽदान्निधानियो हि सोप्यभूत ॥४५॥
जो ऋषि सुबेर से बहुत सा धन लाकर याचकों में बांटा करता था, वह निधानीय (निटानिणिया) नाम से विख्यात हुआ ॥४५॥
४६. डाभडा अथवा डावस्या
दर्भभारं समादाय तस्यास्तरणमाकहोत् ।
तेनैव हेतुना विप्रः दर्भशायीति विश्रुतः ॥४६॥
जो डाभ बिछा कर सोया करता था, वह दर्भशायी (डाभडा अथवा डावस्या) नाम से विख्यात हुआ ॥४६॥
४७. खडभडा अथवा निठुरा
निष्ठुरं वचनं यस्तु वदत्येव जनेष्विह ।
तन्नाम निष्ठुरो लोके बभूव परमाद्रुतम् ॥४७॥
जो ऋषि मनुष्यों के समूह में कठोर वचन बोला करता था, इसीसे वह परमादभुत काम करने वाला निष्ठुर (निठुर अथवा खडभडा) नाम से विख्यात हुआ ॥४७॥
४८. बोहरा अथवा भूसुरा
व्यवहारप्रियो लोके व्यवहरति जनेष्विह ।
व्यवहारीति विप्रोऽसौ सततं ख्यातिमागतः ॥४८॥
व्यवहार प्रिय जो ऋषि संसार में लेन देन का व्यवहार करता था, वह विप्र निरन्तर व्यवहारी (बोहरा अथवा भूसुरा) नाम से विख्यात हुआ ॥४८॥
४९. वांटणा
आयान्तं ब्राह्मणं द्दष्ट्वा तस्मै यच्छति यो धनम् ।
तस्मात्तु विप्रो विख्यातो विभाजीति जनेषु सः ॥४९॥
जो समागत ब्राह्मण को देखकर उसे धन दिया करता था, वह विभाजी (वांटणा) नाम से विख्यात हुआ ॥४९॥
५०. शकुन्या
शकुनानि च सर्वाणि विचचार विचारयन् ।
शाकुनीति ततो लोके विख्यातिं गतवान्मुनिः ॥५०॥
जो मुनि समस्त शकुनों का विचार करता हुआ विचरण करता था, वह लोक में शाकुनि (शकुन्या) नाम से विख्यात हुआ ॥५०॥

चोटिया


शिखा वृद्धतरा यस्य सर्वांगे लुलिता परा ।
तस्माच्चौल इति ख्यातो भूसुरो भुविमंडले ॥११॥
बडी भारी चोटी जिसके सारे शरीर पर पडी रहा करती थी, वह ब्राह्म्ण पृथ्वी मंडल में चौल (चोटिया) नाम से प्रसिद्ध हुआ ॥११॥

KHANDELWAL BRAHMIN SAMAJ



जगद् का गौरवशाली स्थान प्राप्त करनेवाली भारतीय ब्राह्मण जातियों में खाण्डलविप्र खण्डेलवाल ब्राह्मण जाति का भी प्रमुख स्थान है । जिस प्रकार अन्य ब्राह्मण जातियों का महत्व विशॆष रूप से इतिहास प्रसिद्ध है, उसी प्रकार खाण्डलविप्र खण्डेलवाल ब्राह्मण जाति का महत्व भी इतिहास प्रसिद्ध है । इस जाति में भी अनेक ऋषि मुनि, विद्वान् संत, महन्त, धार्मिक, धनवान, कलाकार, राजनीतिज्ञ और समृद्धिशाली महापुरूषों ने जन्म लिया है ।
खाण्डलविप्र जाति में उत्पन्न अनेक महापुरूषों ने समय समय पर देश, जाति, धर्म, समाज और राष्ट के राजनैतिक क्षेत्रो को अपने प्रभाव से प्रभावित किया है । जिस प्रकार अन्य ब्राह्मण जातियों का अतीत गौरवशाली है, उसी प्रकार इस जाति का अतीत भी गौरवशाली होने के साथ साथ परम प्रेरणाप्रद है ।
जिन जातियों का अतीत प्रेरणाप्रद गौरवशाली और वर्तमान कर्मनिष्ठ होते है वे ही जातियां अपने भविष्य को समुज्ज्वल बना सकती है । खाण्डलविप्र जाति में उपर्युक्त दोनो ही बाते विद्यमान हैं । उसका अतीत गौरवशाली है । वर्तमान को देखते हुए भविष्य भी नितान्त समुज्ज्वल है । ऐसी अवस्था में उसके इतिहास और विशॆषकर प्रारंभिक इतिहास पर कुछ प्रकाश डालना अनुचित न होगा ।
खाण्डलविप्र जाति की उत्पत्ति विषयक गाथाओं में ऐतिहासिक तथ्य सम्पुर्ण रूप से विद्यमान है । इस जाति के उत्पत्तिक्रम में जनश्रुति और किंवदन्तियों की भरमार नहीं है । उत्पत्ति के बाद ऐतिहासिक पहलूओं के विषय में जहाँ जनश्रुति और किंवदन्तियों को आधार माना गया है, वह दूसरी बात है । उत्पत्ति का उल्लेख कल्पना के आधार पर नहीं हो सकता । याज्ञवल्क्य की कथा को प्रमुख मानकर खाण्डलविप्र जाति का उत्पत्तिक्रम उस पर आधारित नहीं किया जा सकता । महर्षि याज्ञवल्क्य का जन्म खाण्डलविप्र जाति में हुआ था । याज्ञवल्क्य का उींव खाण्डलविप्र जाति के निर्माण के बाद हुआ था । याज्ञवल्क्य खाण्डलविप्र जाति के प्रवर्तक मधुछन्दादि ऋषियों में प्रमुख देवरात ऋषि के पुत्र थे ।
खाण्डलविप्र जाति का नामकरण एक धटना विशोष के आधार पर हुआ था । वह विशॆष धटना लोहार्गल में सम्पन्न परशुराम के यज्ञ की थी, जिसमें खाण्डलविप्र जाति के प्रवर्तक मधुछन्दादि ऋषियों ने यज्ञ की सुवर्णमयी वेदी के खण्ड दक्षिणा रूप में ग्रहण किये थे । उन खण्डों के ग्रहण के कारण ही, 'खण्डं लाति गृहातीति खाण्डल:' इस व्युत्पति के अनुसार उन ऋषियों का नाम 'खण्डल अथवा खाण्डल पडा था । ब्राह्मण वंशज वे ऋषि खाण्डलविप्र जाति के प्रवर्तक हुए ।
खाण्डलविप्रोत्पत्ति - प्रकरण
खाण्डलविप्र जाति की उत्पत्ति के विषय में स्कन्दपुराणोक्त रेखाखण्ड की 36 से 40 की छै: अघ्यायो में जो कथाभाग है उसका सार निम्नलिखित है:-
'एक बार महर्षि विश्वामित्र वसिष्ठ के आश्रम में गये । वहां जाकर उन्होंने वसिष्ठ से उनका कुशल प्रश्न पूछा । इस पर वसिष्ठ ने वि6वामित्र को राजर्षि शब्द से सम्बोधित करते हुए कहा कि :-
'आपके प्रश्न से मेरा सर्वत्र मंगल है ।'
विश्वामित्र यह सुनकर चुपचाप अपने आश्रम में चले आये । वे ब्रह्मर्षि पद प्राप्त करने के लिये कठोर तपस्या करने लगे । दीर्धकाल तक तपक रने के बाद विश्वामित्र फिर वसिष्ठ के आश्रम में गये । उन्होने वसिष्ठ से फिर कुशल प्रशन पूछा । जिसके उत्तर में फिर भी वसिष्ठ ने उनके लिये राजर्षि शब्द का ही प्रयोग किया और अपने ब्रह्मर्षित्व पर गर्व का प्रर्दशन किया ।
इस पर विश्वामित्र ने कहा - ' ब्रह्मन हमने तो पूर्वजों से सुना है कि पहले सभी वर्ण शूद्र थे । संस्कार विशॆष के कारण उनको द्विज संज्ञा प्राप्त हुई । ऐसी स्थिति में ब्राह्मण और क्षत्रिय में क्या भेद है आपको ब्राह्मण होने का यह अभिमान क्यों है
ब्राह्मण मुख से और क्षत्रिय भुजा से उत्पन्न हुआ इसलिये इन दोनों में भारी भेद है । वसिष्ठ का उत्तर था ।
यह गर्वोक्ति सुन विश्वामित्र उठकर चुपचाप अपने आश्रम में चले गये । उन्होने अपने अपमान का समस्त वृतान्त अपने पुत्रों से कहा । वे स्वयं ब्रह्मर्षि पद प्राप्त करने के लिये महेन्द्रगिरि पर्वत पर तपस्या करने के लिये चले गये ।
महर्षि विश्वामित्र के सौ पुत्र थे । पिता के तपस्या करने के लिये चले जाने के बाद उन्होंने अपने पिता के अपमान का बदला लेने की भावना से वसिष्ठ के आश्रम पर आक्रमण कर दिया ।
वसिष्ठ ने कामधेनु की पुत्री नन्दिनी द्वारा तालजंधादि राक्षसों को उत्पन्न कर उनसे विश्वामित्र के समस्त पुत्रों को मरवा डाला । विश्वामित्र के पुत्रों को मरवाने के बाद वसिष्ठ फिर अपने योग ध्यान में दन्तचित्त हुए ।
विश्वामित्र को जब अपने पुत्रों की मृत्यु का समाचार मिला तो वे अत्यन्त शोक के कारण मूर्छित हो गये । आश्रमवासी अन्य ऋषियों द्वारा उपचार होने पर जब विश्वामित्र की मूर्छा भंग हुई तो उन्हें अपने पुत्रों का दु:ख पुन: सन्तप्त करने लगा । उन्होने वसिष्ठ से बदला लेने की ठान कर पुन: कठोर तपश्चर्या प्रारम्भ की ।
जब उनकी तपश्चर्या को बहुत अधिक समय हो गया तो ब्राह्माजी ने प्रकट होकर वर मांगने को कहा । विश्वामित्र ने मृत पुत्रों के पुनरूदभव की याचना की ।
ब्राह्माजी तथास्तु कहकर चले गये ।
ब्राह्माजी के चले जाने के बाद विश्वामित्र ने वार्क्षिकी सृष्टि की रचना प्रारंभ की । इससे देवता लोग धबरा उठे । देवताओं ने ब्राह्माजी से प्रार्थना की कि - महाराज यह नियति का विधान परर्िवत्तित हो रहा है । आप इस अनर्थ को रोकिये ।
ब्राह्माजी पुन: विश्वामित्र के आश्रम में गये । उन्होने ऋषि विश्वामित्र को समझाया कि - आप जैसे बहुत ऋषि हो गये है, किन्तु किसी ने भी विधि का विधान परिवर्तित करने का दु:साहस नही किया । आप यह क्या कर रहे है यह तो अनर्थ मूलक है ।
विश्वामित्र ने उत्तर में कहा - वसिष्ठ ने तालजंधादि राक्षसों की उत्पत्ति कर मेरे पुत्रों को मरवा डाला है । इसलिये मैं भी वार्क्षिकी सृष्ठि द्वारा वसिष्ठ से बदला लूंगा ।
ब्राह्माजी ने फिर समझाया - स्थावर से स्थावर और जंगम से जंगम की उत्पत्ति होती है अत: आप इस कार्य के विरत होकर स्वस्थ होइये । आपका पुत्र शोक की शान्ति का उपाय करना आवश्यक है । आप मेरे कथनानुसार इसी समय महर्षि भरद्वाज के आश्रम में चले जाइये । वे आपका पुत्र शोक दूर कर आपको सब प्रकार से सान्तवना देंगे ।
विश्वामित्र ब्राह्माजी के कथनानुसार वार्क्षिकी सृष्ठि से विरत होकर महर्षि भरद्वाज के आश्रम में गये । महर्षि भरद्वाज ने नाना उपदेशो द्वारा उनका शोक दूर करते हुए कहा कि - गये हुओ के लिये आप चिंता न कीजिये । मैं मानता हूँ कि आपका पुत्र शोक दु:सह है । इसके लिये मैं उचित समझाता हूॅ कि आप मेरे इन सौ मानस पुत्रों को अपने साथ ले जाइये । ये आपका पिता के समान आदर करेंगे और सर्वदा आपकी आज्ञा में रहेंगे ।
विश्वामित्र ने महर्षि भरद्वाज का कहना मान लिया । वे उन सौ मानस पुत्रो को अपने साथ ले आये । उन्होने उन ऋषिकुमारों को नाना कथा कहानियों द्वारा अपनी ओर आकृष्ठ कर लिया । जब वे बडे हुए तो विश्वामित्र के आश्रम के निकटर्वी ऋषियों ने अपनी लडकियां उन ऋषिकुमारों को ब्याह दीं ।
विश्वामित्र ऋषि धूमते हुए हरि6चन्द्र के यज्ञ में जा पहुचे । हरि6चन्द्र अपने जलोदर रोग की शान्ति के लिये वारूणेष्टि यज्ञ कर रहे थे । उन्होने यज्ञ के लिये अजीगर्त नामक निर्धन ब्राह्मण के पुत्र शुन:शॆप को बलि पशु के स्थान पर खरीद लिया था । अजीगर्त महानिर्धन था । निर्धनता के कारण वह अपनी बहुसन्तति का भरण पोषण करने में भी असमर्थ था । उसने अपने पुत्र शुन:शॆप को रूपये के लोभ में बेच डाला था ।
शुन:शॆप अपनी मृत्यु निकट देखकर धबरा रहा था । वह विश्वामित्र की बहिन का पुत्र था । शुन: शॆप ने विश्वामित्र को देखते ही उनसे अपने छुटकारे की प्रार्थना की । विश्वामित्र ने शुन:शॆप को वेद की ऋचायें बतलाई, जिनके प्रभाव से बलिदान हुआ शुन:शॆप बच गया ।
यज्ञ समाप्ति के बाद जब सब लोग चले गये तो विश्वामित्र ने शुन:शॆप को आकाश से उतार कर हरिश्चन्द्र के सभासदों को दिखलाया । सभी लोग आश्चर्यचकित रह गये । इसके बाद विश्वामित्र शुन:शॆप को अपने साथ ले आये ।
धर आकर उन्होने अपने पुत्रो से समस्त वृतान्त कहा और उन्हें आदेश दिया कि - शनु: शॆप तुम्हारा भाई है । तुम इसे अपने बडे भाई के समान समझो, और इसका आदर करो । यह भी मेरा पुत्रक होगा । तुम्हारे समान यह भी मेरे धन में दायभाग का अधिकारी होगा । इस पर विश्वामित्र के वे सौ मानस पुत्र दो पंक्तियों में विभक्त हो गये । बडे पचास एक ओर थे । छोटे पचास दूसरी पंक्ति में थे । पहली पंक्ति वालों से जब ऋषि ने यह प्रश्न किया तो उन्होने शुन: शॆप को अपना बडा भाई मानना अस्वीकार कर दिया । इस पर महर्षि विश्वामित्र अत्यन्त कु्रद्ध हुए । उन्होने अपने बडे पचास पुत्रों को शाप देकर म्लेच्छ बना दिया ।
इसके बाद महर्षि विश्चामित्र ने अपने छोटे पुत्रों से प्रश्न किया - तुम लोग इसे अपना बडा भाई समझोगे या नहीं ? छोटे पचास पुत्र जिनमें प्रमुख महर्षि मधुछन्द थे, ऋषि के शाप से भयभीत हो गये थे । उन्होने तत्काल ऋषि का आदेश सहर्ष स्वीकार किया । ऋषि विश्वामित्र भी अपने पुत्रों की अनुशासनशीलता से प्रसन्न हो गये । उन्होने अपने उन पचास पुत्रों का धनवान पुत्रवान होने का आशीर्वाद दिया ।
ऋचीक के पौत्र और जमदग्नि के पुत्र परशुराम ने अपने पिता जमदग्नि की आज्ञा से अपनी माता और भाइयों का सिर काट डाला था । जिसके प्रायश्चित स्वरूप उन्होने पैदल पृथ्वी पर्यटन किया था । समस्त पृथ्वी का पर्यटन करने के बाद वे अपने पितामह ऋचीक ऋषि के आश्रम में गये ।
कुशल प्र6न के बाद परशुराम ने अपनी इक्कीस बार की ज्ञत्रिय-विजय की कहानी अपने पितामह को कह सुनाई, जिसे सुनकर ऋषि ऋचीक अत्यन्त दु:खी हुए । उन्होने अपने पौत्र परशुराम को समझाया कि - तुमने यह काम ठीक नहीं किया, क्योकिं ब्राह्मण का कर्तव्य ज्ञमा करना होता हैं ज्ञमा से ही ब्राह्मण की शोभा होती है । इस कार्य से तुम्हारा ब्राह्मणत्व का हास हुआ है । इसकी शान्ति के लिये अब तुम्हें विष्णुयज्ञ करना चाहिये ।
अपने पितामह की आज्ञा मानकर परशुराम ने प्रसिद्ध लोहार्गल तीर्थ में विष्णुयज्ञ किया । परशुराम के उस यज्ञ में कश्यप ने आचार्य और वसिष्ठ ने अध्वर्यु का कार्य सम्पन्न किया । लोहार्गलस्थ माला पर्वत नामक पर्वत शिखर पर आश्रम बना कर रहने वाले मानसोत्पन्न मधुछन्दादि ऋषियों ने उस यज्ञ में ऋत्विक् का कार्य निष्पादन किया ।
यज्ञ-समाप्ति के बाद परशुराम ने सभी सभ्यों का यथायोग्य आदर सत्कार कर यज्ञ की दक्षिणा दी । यज्ञ के ऋत्विक् मानसोत्पन्न मधुछन्दादि ऋषियों ने यज्ञ की दक्षिणा लेना अस्वीकार कर दिया । इससे परशुराम का चित्त प्रसन्न न हुआ । उन्होने आचार्य कश्यप से कहा -
निमंत्रित मधुछन्दादि ऋषि यज्ञ की दक्षिणा नहीं लेना चाहते । उनके दक्षिणा न लेने से मैं अपने यज्ञ को असम्पूर्ण समझता हूं । अत: आप उन्हे समझाइये कि वे दक्षिणा लेकर मेरे यज्ञ को सम्पूर्ण करें ।
कश्यप ने मधुछन्दादि ऋषियों को बुलाकर कहा - आप लोगों को यज्ञ की दक्षिणा ले लेनी चाहिये, क्योकिं यज्ञ की दक्षिणा लेना आवश्यक है । दक्षिणा के बिना यज्ञ असम्पूर्ण समझा जाता है । आप लोगों को दान लेने में वैसे भी कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिये । केवल एक ब्राह्मण वर्ण ही ऐसा है जो केवल दान लेता है । अन्य वर्ण दान देने वाले है, लेने वाले नहीं । इसके साथ साथ यह भी विशॆष बात है कि यह राजा ब्राह्मण कुल का पोषक है । इसलिये इसकी दी हुई दक्षिणा ग्रहण कर आप लोग इसको प्रसन्न करें । यदि आप यज्ञ दक्षिणा नहीं लेना चाहते तो आप भी अन्य प्रजाऒं के समान राजा को राज्य कर दिया करें ।
कश्यप की इस युक्तियुक्त बात को मधुछन्दादि ऋषियों ने मान लिया । कश्यप ने परशुराम को सुचित किया कि मधुछन्दादि ऋषि यज्ञ की दक्षिणा लेने को तैयार है । उस समय परशुराम के पास एक सोने की वेदी को छोडकर कुछ नहीं बचा था । वे अपना सर्वस्व दान में दे चुके थे । उन्होने उस वेदी के सात खण्ड टुकडे किये । फिर सातों खण्डों के सात सात खण्ड 1 x 7 = 7 x 7 = 49 कर प्रत्येक ऋषि को एक एक खण्ड दिया ।
इस प्रकार सुवर्ण-वेदी के उनचास खण्ड उनचास ऋषियों को मिल गयें, किन्तु मानसोत्पन्न मधुछन्दादि ऋषि संख्या में पचास थे । इसलिये एक ऋषि को देने के लिये कुछ न बचा तो सभी सभ्य चिन्तित हुए । उसी समय आकाशवाणी द्वारा उनको आदेश मिला कि तुम लोग चिन्ता मत करो । यह ऋषि इन उनचास का पूज्य होगा । इन उनचास कुलों में इसका श्रेष्ठ कुल होगा ।
इस प्रकार यज्ञ की दक्षिणा में यज्ञ की ही सोने की वेदी के खण्ड ग्रहण करने से मानसोत्पन्न मधुछन्दादि ऋषियों का नाम खण्डल अथवा खाण्डल पड गया । ये ही मधुछन्दादि ऋषि खाण्डलविप्र या खण्डेलवाल ब्राह्मण जाति के प्रवर्तक हुए । इन्ही की सन्तान भविष्यत् में खाण्डलविप्र या खण्डेलवाल ब्राह्मण जाति के नाम से प्रसिद्ध हुई ।